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गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागू पाय | Guru Govind Dou Khade | Kabir Ke Dohe With Meaning


कबीरदास या संत कबीर 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। कबीर दास जी का जन्म 1398 ई० में काशी में हुआ था। उनके लोकप्रिय दोहे के संग्रह को यहां तीन भागो में प्रस्‍तुत किया है। ये पोस्ट पहला भाग है।

कबीर के दोहे (Kabir Ke Dohe) | Guru Govind Dou Khade

Guru Govind Dou Khade  -Kabir Ke Dohe
Kabor Ke Dohe Part -1
|| 1 ||
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय

भावार्थ || 1 || –  संत कबीर दास जी इस दोहे में कहते हैं, यदि गुरू और गोबिंद (भगवान) एक साथ खड़े हों तो किसे प्रणाम करना चाहिए – गुरू को अथवा गोबिन्द को? ऐसी स्थिति में गुरू के श्रीचरणों में शीश झुकाना उत्तम है  क्योंकि गुरु ने ही गोविन्द से हमारा परिचय कराया है इसलिए गुरु का स्थान गोविन्द से भी ऊँचा है।

|| 2 ||
सब धरती कागज करूँ, लेखनी सब बनराय
सात समुंदर की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय

भावार्थ || 2 || – यदि सारी धरती को कागज़ मान लिया जाए, सारे जंगल की लकड़ी की कलम बना ली जाए तथा सातों समुद्र स्याही हो जाएँ तो भी हमारे द्वारा कभी हमारे गुरु के गुण-महिमा का वर्णन करना संभव नहीं है।हमारे जीवन मे हमारे गुरु की महिमा सदैव अनंत होती है, गुरु का ज्ञान हमारे लिए सदैव असीम और अनमोल होता है ।

|| 3 ||
तीरथ गए ते एक फल, संत मिले फल चार
सद्गुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार

भावार्थ || 3 || – संत कबीर कहते हैं तीर्थ यात्रा पर जाने से एक फल की प्राप्ति होती हैं और संतो महात्माओ के सत्संग से चार फलोँ की प्राप्ति होती हैं। लेकिन अगर सच्चे सद्गुरु मिल जाएं तो जीवन में अनेक प्रकार के फल (पुण्य) मिल जाते हैं।


|| 4 ||
गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोकों भय नाहिं

भावार्थ || 4 || – कबीर दास जी कहते हैं कि गुरु को सर्वश्रेष्ठ समझना चाहिए क्योंकि गुरु के समान अन्य कोई नहीं है। गुरु कि आज्ञा का पालन सदैव पूर्ण भक्ति एवम् श्रद्धा से करने वाले जीव को संपूर्ण लोकों में किसी प्रकार का भय नहीं रहता ।

|| 5 ||
कहते को कही जान दे, गुरु की सीख तू लेय
साकट जन औश्वान को, फेरि जवाब न देय

भावार्थ || 5 || – कबीर दास जी कहते हैं कि कि भले ही कितने लोग तुम्हे सीख दे मगर हमेशा एकमात्र गुरु की ही सीख को मन में बसाना। कभी भी बुरे मनुष्यों और कुत्तों को वापस पलट कर जवाब देने की कोई आवश्यकता नहीं है।  

|| 6 ||
या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत
गुरु चरनन चित लाइये, जो पुराण सुख हेत

भावार्थ  || 6 || – कबीर दास जी कहते हैं कि यह संसार कुछ ही दिनों का है अतः इससे मोह सम्बन्ध न जोड़ो। सद्गुरु के चरणों में मन लगाओ, जो पूर्ण सुखज देने वाले हैं।

|| 7 ||
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर

भावार्थ || 7 || – कबीर दास जी कहते हैं कि खजूर का पेड़ दिखने बहुत बड़ा एवं उंचा होता है लेकिन ना तो वो किसी को छाया दे पाता है और फल भी बहुत दूर ऊँचाई पर लगता है। इसी तरह अगर आप बहुत धनवान है या समृद्ध परिवार से है परन्तु किसी का भला नहीं कर पा रहे तो ऐसे बड़े होने से भी कोई फायदा नहीं है।

|| 8 ||
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय

भावार्थ || 8 || – कबीर दास जी कहते हैं कि बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार से कितने ही लोग चले गए पर सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।

|| 9 ||
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ

भावार्थ || 9 || – कबीर दास जी कहते हैं कि जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ पा ही लेते हैं। जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते। जीवन में सफलता भी उसे ही मिलेगी जो कठिनाइओं से बिना डरे प्रयत्न करते हैं।

|| 10 ||
कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर
ना काहू से दोस्ती, न काहू से बैर

भावार्थ || 10 || – कबीर दास जी इस संसार में आकर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो बैर (दुश्मनी) भी न हो !

|| 11 ||
कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय
जनम – जनम का मोरचा, पल में डारे धोय

भावार्थ || 11 || – कबीर दास जी कहते हैं कि निकृष्ट बुद्धि (कुमति) से/ बुराई रुपी कीचड़ से भरे हुए शिष्य के लिए गुरु निर्मल जल की भाँती होते हैं। शिष्य के जन्म – जन्मान्तरो की बुराई को सद्गुरु एक पल में दूर कर देते हैं। गुरु के संपर्क में आने पर सभी बुराइयां दूर हो जाती हैं। कबीर दास ने गुरु की महिमा को बहुत बड़ा माना है क्योंकि गुरु ही शिष्य की बुराइयों को चिन्हित करता है और उन्हें दूर करके जीवन के मूल उद्देश्य की और बढ़ाता है।

|| 12 ||
गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब संत
वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महंत

भावार्थ || 12 || – कबीर दास जी कहते हैं कि गुरू और पारस के अन्तर को सभी ज्ञानी पुरूष जानते हैं। पारस मणि के विषय जग विख्यात हैं कि उसके स्पर्श से लोहा सोने का बन जाता है उसी प्रकार गुरू भी इतने महान हैं कि अपने नित्य सान्निध्य में ढालकर शिष्य को अपने जैसा ही महान बना लेते हैं।


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